सोमवार, जून 14, 2010

कहीं 'वो' है तो नहीं !

उससे 
बहुत डरता हूँ मैं 
बचने के लिए मैंने 
खड़ी की हैं दीवारें भी 
लोग जिसे मेरा घर कहते हैं 

पर आखिर 
सोने का पिंज़रा भी जेल होता है
जैसे ही बाहर आऊं
मुड़ मुड़ के देखता हूँ
कहीं 'वो' है तो नहीं !

लोग पूछते हैं 
किससे डरते हो !
उससे ? जो है ही नहीं 
पर हाँ ,डर उसी का है 
जो 'नहीं' है |
 

तलैया

जो भी आता है 
कंकर फेंक ,धूर्त नज़रों से तौल 
कंधे उचका कर चल देता है 
निष्फल उर्मियाँ 
आर्त कम्पन दुस्सह !


दीवारें ज़मीन की
सीमा की विवश घुटन 
डाल दो एक साथ ,सारे पत्थर 
चलो सूख ही जाए ,फिर 
मन की तलैया |