शुक्रवार, सितंबर 11, 2009

कस्तूरीमृग



न जाने कौन 
आवाज़ देता रहा
कि 'हूँ' मैं,देख मुझे 
सम्मोहित सा ढूँढा किया उसे 
किताबों में,सुरों के सागर में
तितली के परों में और 

चिडिया की चहक में 
हवाओं के साथ 
पेड़ों के झूलने में 
पत्तों से छन कर आती तिलस्मी 
झिलमिलाहट में 
लगता रहा कि 
इन्हीं में है 'वो 'कहीं  
पर लुकाछिपी और बाजीगरी तो धर्म उसका 
कस्तूरीमृग की  तरह 
मैं ही था कि खोजता रहा उसे 
फलसफों और जंगलों में
वो तो था सदा यहीं 
दिल में मिरे 

बोध के सोपान

लगता ही है तुम्हें कि चुप हूँ 
भीतर है तुमुल कोलाहल 
कारों की पों पों 
दोपाये की भों भों, सुन नहीं पाता
तुम समझते हो ,बहरा हूँ 
युक्लिप्टस, यह शैतान गाछ 
सर पर खड़े बालों वाला छोकरा /
वो सफ़ेद टोपी वाला 
मेरी बेबसी पर हंसते हैं , हंसें 
रात की काली चादर पर अचानक बिजली की कौंध सा 
दूर कहीं एक कुतिया का रुदन 
सन्नाटे को पारता
असह्य बोझ बन 
मेरी छाती पर आ बैठता है 
डॉक्टर, हुंह:
आले लगाता और नब्ज़ टटोलता है 
तुम ही कहो 
कैसे , क्या बोलूँ ......