रविवार, मई 23, 2010

सौंधी सी महक

बरसों से 
तपती रेत पर 
बरखा की पहली फुहार से उठी 
सौंधी सी महक ,तुझे पाकर
  बहुत डर गया हूँ मैं 


बालू के महल भरभराते 
ढहते टीलों के बियाबान समंदर में 
तुम टिकोगी कैसे !
छेद गई है अंतस 
तुम्हारी अल्पायु इयत्ता 


रोक तो नहीं पाऊंगा तुम्हें 
पर समझ गया हूँ  
उपजीव्य तुम्हारा ,
मेरा जलना और उबलना 


तपूंगा बरसों बरस फिर  
बन गंध मिलूंगा तुममें 
बरखा की पहली फुहार से उठी 
सौंधी सी महक