रविवार, फ़रवरी 27, 2011

आओ उतरें जंगल में

बूढ़े पेड़ों की शाखों पर 
अब भी हलचल 
कुछ चिड़ियों के डेरे हैं 

सदियों तपे धूप में 
चीर फकीर के 
फटे तने हैं 
खोखल कहो भले ही 
जीवन-अमृत भरे कमंडल 
पिए गिलहरी,
अपनी जात पर पहरे हैं 

शब्द बहुत हैं,भाषा उन्नत 
लिखे हैं तुमने सोच सोच 
बारूद-आखर,
पर अपने अपने दडबे हैं 

काश!मिले कोई गंध तुम्हें 
हवा चलेगी,तरसोगे 
काश!मिले कुछ नज़र तुम्हें 
देख सको तुम अपनी किस्मत 
लपट आग की दहक रही 
और रक्त के घेरे हैं 
आओ उतरें जंगल में 
यहाँ तो घोर अँधेरे हैं

 

सोमवार, जनवरी 31, 2011

नियति

बिजली के खंभे पर 
निर्वासित चिड़िया अवाक् 
स्तब्ध  निराश आँखें 
ताकती हैं नीचे 
सड़क पर तमाशा 

सड़क पर दौड़ते हैं 
हत्यारे ट्रक ,तिपहिया  
और कारों के काफिले 
गले में अटकीं शून्य ध्वनियाँ 

रंगरेजों की यह बस्ती 
आँखों में लाल आग ,रंग नहीं 
जुगनू भी कहाँ शहर के अंधेरों में 
भट्टियाँ और ईंधन 

कंप्यूटर देखते हैं 
सुख के अंबार , सपने 
बमों के धमाके 
पर नहीं टूटती कुम्भकर्णी नींद 

शायद 
मकड़ी की नियति तुम्हारी है.