रविवार, जून 27, 2010

इतर : विवशता

उजले 
असीम आसमान में 
इकठ्ठा हैं कुछ 
ठिठुरे से,छितरे 
झीने सफ़ेद बादल 
हुक्के के गिर्द
चौपाल में बतियाते जमे हैं ,जैसे 
बरसों बाद मिले हैं 
(और)कुछ पल बाद 
बिछड़ जाना है .


नेपथ्य में ,
उसका ' सब कुछ ' हो गई है आँखें 
देखता सा बह रहा है 
निपट अकेला 
एक चाँद
कुछ ढूंढता और 
अनचीन्हो को छोड़ता 


बादल चले गए हैं 
मिल ,बतिया कर 
अपनी राह पर 
और चाँद ,उफ्फ !
स्तब्ध , मुंतज़िर उन बादलों का 
जिन्हें उसे पहचानना है


सोमवार, जून 14, 2010

कहीं 'वो' है तो नहीं !

उससे 
बहुत डरता हूँ मैं 
बचने के लिए मैंने 
खड़ी की हैं दीवारें भी 
लोग जिसे मेरा घर कहते हैं 

पर आखिर 
सोने का पिंज़रा भी जेल होता है
जैसे ही बाहर आऊं
मुड़ मुड़ के देखता हूँ
कहीं 'वो' है तो नहीं !

लोग पूछते हैं 
किससे डरते हो !
उससे ? जो है ही नहीं 
पर हाँ ,डर उसी का है 
जो 'नहीं' है |
 

तलैया

जो भी आता है 
कंकर फेंक ,धूर्त नज़रों से तौल 
कंधे उचका कर चल देता है 
निष्फल उर्मियाँ 
आर्त कम्पन दुस्सह !


दीवारें ज़मीन की
सीमा की विवश घुटन 
डाल दो एक साथ ,सारे पत्थर 
चलो सूख ही जाए ,फिर 
मन की तलैया |

सोमवार, जून 07, 2010

ताकती है मुझे

मेरी खिड़की के द्वार पर 
पेड़ की एक टहनी 
जब तब 
उल्लास से मेरी आँखों में 
झांकती है 

हवा के झूले में पेंग बढा
कमरे में आता है 
खुशबू का एक झोंका
और वहां होती है 
खुशबू मात्र 

कभी दूर से स्थिर 
ताकती है मुझे 
नहीं मालूम उस वक़्त क्यों 
मैं भी होता हूँ उदास