शनिवार, सितंबर 11, 2010

" मैं " हूँ घड़ी की टिक टिक

आप से पूछता हूँ ,"मैं"
बताइये तो भला 
मैं हूँ कौन !
अ, ब, स ? , नहीं सा'ब 

दिसंबर में दो क्षिप्र 
गर्म साँसों का टकराव ,संघनन 
सितम्बर में 
बर्फ का एक अदद 'पीस' 

जून की गर्मी में 
पल पल गलता पिघलता टुकड़ा 
बहता पानी 
और फिर भाप 

बताइये तो भला 
जून की भाप और 
दिसम्बर की भाप के बीच 
है कोई फर्क ?

जमे रहने और पिघलते जाने 
के बीच फर्क 
कि मैं हूँ कौन 
बर्फ , पानी या भाप 

नहीं मालूम ?
तो इस गड्ड मड्ड को डालिए 
" खैर छोडिये " की झोली में 

सुनिए,
मैं हूँ तो कुछ भी नहीं 
"हूँ " तो बस 
घड़ी की टिक टिक |

शनिवार, अगस्त 28, 2010

तू मायावी

हर रोज़ धीरे धीरे 
रात जब युवा होती है
एक फिसलती सरसराहट 
मुस्कुराती आँखें , तेरे बालों की महक 
एक परिचित देह गंध 
मेरा सत्व खींच लेती है 
और 
मैं पाता हूँ 
एक फैलता खालीपन 
जब जब दौड़ा हूँ तुम्हें पकड़ने 
हांफता हूँ हर बार 
और तुम निकल भागती हो 
मायावी |

बुधवार, जुलाई 28, 2010

शगल उनका

जब  वो  कोई  नहीं  तेरा    क्यूँ परेशान तू 
दिल तो धडका करे यूं ही नाहक हैरान है तू
 
ठहरे पानी में पत्थर फेंक के खिलखिलाना 
शगल  उनका  बस  खेल  का सामान है तू

 उनके  तमाशों  को   जाने है सारा ज़माना 
एक  तू  ही  रहा  गाफिल   नादान  है  तू

गुज़रता जाए है बेहिसाब यादों का कारवाँ  
उनका अहद चुप्पी  किसको सुनाने जाए तू 

मालूम था 'सुरेन' तुझे काँटों भरी है रहगुज़र 
किन से गिले शिकवे गर लहू लुहान है तू

रविवार, जुलाई 25, 2010

मेरा यार है कोई

उगते सूरज के उजाले इन आँखों में 
अंधेरों के आगोश में क्यों रहा करे कोई 

उनकी हंसी कि घुंघरुओं की खनक चारसू 
दिल में सरगम क्यों बाहर भटका करे कोई 

घूंघट की ओट से क्या देखा तुमने उस दिन 
बाखुशी हर रोज़ मरे जाता है कोई 

पास बैठो अभी जी भर के देखूं तुम्हें 
आये कज़ा तो बुत बन के रहा करे कोई 

फिक्र में बस तू ही तू अब तो पल छिन
क्या जानूं खुदा है तू बस मेरा यार है कोई

आ दिल में छुपा लूं तुझे इस तरहा
देखे न खुदा ही न उसका बंदा कोई  

इस तरह न देखो जो था वही है अब भी 'सुरेन'
जायेगा कहाँ दीवाना तेरा कितना ही खींचा करे कोई

शुक्रवार, जुलाई 09, 2010

स्त्री

हाँ , मैं 
एक स्त्री 
सहनशीलता की जीवंत मूर्ति
अचला , धरा की तरह .


जब चाहा खोदा 
जहाँ चाहा छील दिया 
दोहन करते रहे हो 
सतत , पर कब तक !


रक्त संबंधों का हवाला 
रिश्तों की सीमा 
तन की रचना का वास्ता 
क्यों , कब तक !

एक व्यक्ति हूँ मैं ,मानवी 
अभिव्यक्ति की प्यासी 
ताले न लगाओ 
व्यक्त होने दो मुझे 

सूखने न दो ,पछताओगे
बरसते इस सावन में 
होने दो मुझे तर बतर 
तुम्हीं पाओगे मुझ में ,कुछ सरस 

तुमने कहा मुझे , अबला
फिर क्यों हो भयातुर 
उड़ने दो मुझे , मुक्त 
आकाश मेरा भी है 

तुम पुरुष , कापुरुष 
मेरी ही रचना हो तुम 
शर्मिंदा , मैं एक स्त्री 
मां हूँ तुम्हारी , पर कब तक !

सह रही हूँ सब कुछ 
जाओगे भी कहाँ तुम !
मैं ही हूँ तुम्हारी सीमा ,
पर कब तक ! 

रविवार, जून 27, 2010

इतर : विवशता

उजले 
असीम आसमान में 
इकठ्ठा हैं कुछ 
ठिठुरे से,छितरे 
झीने सफ़ेद बादल 
हुक्के के गिर्द
चौपाल में बतियाते जमे हैं ,जैसे 
बरसों बाद मिले हैं 
(और)कुछ पल बाद 
बिछड़ जाना है .


नेपथ्य में ,
उसका ' सब कुछ ' हो गई है आँखें 
देखता सा बह रहा है 
निपट अकेला 
एक चाँद
कुछ ढूंढता और 
अनचीन्हो को छोड़ता 


बादल चले गए हैं 
मिल ,बतिया कर 
अपनी राह पर 
और चाँद ,उफ्फ !
स्तब्ध , मुंतज़िर उन बादलों का 
जिन्हें उसे पहचानना है


सोमवार, जून 14, 2010

कहीं 'वो' है तो नहीं !

उससे 
बहुत डरता हूँ मैं 
बचने के लिए मैंने 
खड़ी की हैं दीवारें भी 
लोग जिसे मेरा घर कहते हैं 

पर आखिर 
सोने का पिंज़रा भी जेल होता है
जैसे ही बाहर आऊं
मुड़ मुड़ के देखता हूँ
कहीं 'वो' है तो नहीं !

लोग पूछते हैं 
किससे डरते हो !
उससे ? जो है ही नहीं 
पर हाँ ,डर उसी का है 
जो 'नहीं' है |
 

तलैया

जो भी आता है 
कंकर फेंक ,धूर्त नज़रों से तौल 
कंधे उचका कर चल देता है 
निष्फल उर्मियाँ 
आर्त कम्पन दुस्सह !


दीवारें ज़मीन की
सीमा की विवश घुटन 
डाल दो एक साथ ,सारे पत्थर 
चलो सूख ही जाए ,फिर 
मन की तलैया |

सोमवार, जून 07, 2010

ताकती है मुझे

मेरी खिड़की के द्वार पर 
पेड़ की एक टहनी 
जब तब 
उल्लास से मेरी आँखों में 
झांकती है 

हवा के झूले में पेंग बढा
कमरे में आता है 
खुशबू का एक झोंका
और वहां होती है 
खुशबू मात्र 

कभी दूर से स्थिर 
ताकती है मुझे 
नहीं मालूम उस वक़्त क्यों 
मैं भी होता हूँ उदास
 

रविवार, मई 23, 2010

सौंधी सी महक

बरसों से 
तपती रेत पर 
बरखा की पहली फुहार से उठी 
सौंधी सी महक ,तुझे पाकर
  बहुत डर गया हूँ मैं 


बालू के महल भरभराते 
ढहते टीलों के बियाबान समंदर में 
तुम टिकोगी कैसे !
छेद गई है अंतस 
तुम्हारी अल्पायु इयत्ता 


रोक तो नहीं पाऊंगा तुम्हें 
पर समझ गया हूँ  
उपजीव्य तुम्हारा ,
मेरा जलना और उबलना 


तपूंगा बरसों बरस फिर  
बन गंध मिलूंगा तुममें 
बरखा की पहली फुहार से उठी 
सौंधी सी महक