रविवार, अक्तूबर 25, 2009

उत्सव

आओ 
दिनों पर लगाएं ठप्पे
और मनाएँ उत्सव 
बीवी की चूड़ी बिके 
तो छल्लों का क्या 
शराब पियें और नाचें ,क्योंकि 
कल के लिए नहीं है 
अपने पास कोई और ठप्पा 
कल से फिर रेतेंगे 
एक दूसरे के गले 
आओ आज तो गले मिल लें ,
सहला लें और नाप लें 
नाली में बुझे पटाखे बीन लें 
कोशिश करें कि धमाके हों 
न हो तो न सही 
आज है उत्सव 
आओ मना लें
 

शनिवार, अक्तूबर 03, 2009

दंश

तब ,
दिन थे बस दिन
रातें थीं  बस रात 

था सहारा का अनंत विस्तार 
और "मैं "नहीं था 
अब 
दिन हैं पर नहीं हैं ,
रातें कभी कभी होती हैं 
टुकड़े टुकड़े चमकीली 


बहुत चुभता है ....कई बार 
जुगनू का बाना 
कभी कभी "होना "(और)
अधिकतर 'न ' होना 
नकाब का उलटना 
और गिर जाना 


होगा जब तू वस्त्रविहीन 
तब 
दिन होगा बस दिन 
रात होगी बस रात 
होगा सब कुछ उघडा हुआ ,मगर 
पथरा जायेंगी आँखें 
होगा सब वही कुछ 
उफ़ ! एक मेरे सिवा



 

शुक्रवार, अक्तूबर 02, 2009

चुप्पा

चुप्पा  घुन्ना  कह  कर  उसको 
गाली  मत  दो 
मौन  तो  उसकी  भाषा  बंधु 
तुम  शब्दों  के  बाजीगर 

सूख  न  पायें  ताजा  रक्खो 
कील  फांस  के  ज़ख्मों  को 

उसके  दिल  में  झाँक के  देखो 
जनम  जनम  के  घाव  हैं  बंधु 


वह  तो  अभी  ककहरे  से 
दो  चार  हुआ  है 
अभी  न  सान चढाओ  उसको 
अभी  संलाप  नि :शब्द  से  उसका 
नीरवता  में  खोने  दो 

अभी  अभी  तो  उतरा  है 

बीच  समंदर  जाने  दो 
चुप्पा  घुन्ना  ......

जंगल

बूढे पेड़ों की शाखों पर 
अब  भी हलचल 
कुछ  चिडियों के डेरे हैं 

चीर  फ़कीर के 
सदियों  तपे धूप में 
फटे  ताने हैं 
खोखल  कहो भले ही 
जीवन  अमृत भरे कमंडल 
पिए गिलहरी 
अपनी जात पर पहरे हैं 

शब्द  बहुत हैं  भाषा उन्नत 
लिखा  है युमने सोच सोच 
आग्नेय  अक्षर 
प्रकाश  चकाचौंध ,पर 
अपने  अपने दडबे हैं 
काश मिले  कोई गंध तुम्हें 
हवा  चलेगी ,तरसोगे 
काश  मिले कोई आँख तुम्हें
देख सको तुम अपनी किस्मत 
लपट आग की दहक रही 
और रक्त के घेरे हैं 
आओ उतरें जंगल में 
यहाँ तो घोर अँधेरे हैं 



शुक्रवार, सितंबर 11, 2009

कस्तूरीमृग



न जाने कौन 
आवाज़ देता रहा
कि 'हूँ' मैं,देख मुझे 
सम्मोहित सा ढूँढा किया उसे 
किताबों में,सुरों के सागर में
तितली के परों में और 

चिडिया की चहक में 
हवाओं के साथ 
पेड़ों के झूलने में 
पत्तों से छन कर आती तिलस्मी 
झिलमिलाहट में 
लगता रहा कि 
इन्हीं में है 'वो 'कहीं  
पर लुकाछिपी और बाजीगरी तो धर्म उसका 
कस्तूरीमृग की  तरह 
मैं ही था कि खोजता रहा उसे 
फलसफों और जंगलों में
वो तो था सदा यहीं 
दिल में मिरे 

बोध के सोपान

लगता ही है तुम्हें कि चुप हूँ 
भीतर है तुमुल कोलाहल 
कारों की पों पों 
दोपाये की भों भों, सुन नहीं पाता
तुम समझते हो ,बहरा हूँ 
युक्लिप्टस, यह शैतान गाछ 
सर पर खड़े बालों वाला छोकरा /
वो सफ़ेद टोपी वाला 
मेरी बेबसी पर हंसते हैं , हंसें 
रात की काली चादर पर अचानक बिजली की कौंध सा 
दूर कहीं एक कुतिया का रुदन 
सन्नाटे को पारता
असह्य बोझ बन 
मेरी छाती पर आ बैठता है 
डॉक्टर, हुंह:
आले लगाता और नब्ज़ टटोलता है 
तुम ही कहो 
कैसे , क्या बोलूँ ......