शुक्रवार, अक्तूबर 02, 2009

जंगल

बूढे पेड़ों की शाखों पर 
अब  भी हलचल 
कुछ  चिडियों के डेरे हैं 

चीर  फ़कीर के 
सदियों  तपे धूप में 
फटे  ताने हैं 
खोखल  कहो भले ही 
जीवन  अमृत भरे कमंडल 
पिए गिलहरी 
अपनी जात पर पहरे हैं 

शब्द  बहुत हैं  भाषा उन्नत 
लिखा  है युमने सोच सोच 
आग्नेय  अक्षर 
प्रकाश  चकाचौंध ,पर 
अपने  अपने दडबे हैं 
काश मिले  कोई गंध तुम्हें 
हवा  चलेगी ,तरसोगे 
काश  मिले कोई आँख तुम्हें
देख सको तुम अपनी किस्मत 
लपट आग की दहक रही 
और रक्त के घेरे हैं 
आओ उतरें जंगल में 
यहाँ तो घोर अँधेरे हैं 



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