तब ,
दिन थे बस दिन
रातें थीं बस रात
था सहारा का अनंत विस्तार
और "मैं "नहीं था
अब
दिन हैं पर नहीं हैं ,
रातें कभी कभी होती हैं
टुकड़े टुकड़े चमकीली
बहुत चुभता है ....कई बार
जुगनू का बाना
कभी कभी "होना "(और)
अधिकतर 'न ' होना
नकाब का उलटना
और गिर जाना
होगा जब तू वस्त्रविहीन
तब
दिन होगा बस दिन
रात होगी बस रात
होगा सब कुछ उघडा हुआ ,मगर
पथरा जायेंगी आँखें
होगा सब वही कुछ
उफ़ ! एक मेरे सिवा
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