हाँ , मैं
एक स्त्री
सहनशीलता की जीवंत मूर्ति
अचला , धरा की तरह .
जब चाहा खोदा
जहाँ चाहा छील दिया
दोहन करते रहे हो
सतत , पर कब तक !
रक्त संबंधों का हवाला
रिश्तों की सीमा
तन की रचना का वास्ता
क्यों , कब तक !
एक व्यक्ति हूँ मैं ,मानवी
अभिव्यक्ति की प्यासी
ताले न लगाओ
व्यक्त होने दो मुझे
सूखने न दो ,पछताओगे
बरसते इस सावन में
होने दो मुझे तर बतर
तुम्हीं पाओगे मुझ में ,कुछ सरस
तुमने कहा मुझे , अबला
फिर क्यों हो भयातुर
उड़ने दो मुझे , मुक्त
आकाश मेरा भी है
तुम पुरुष , कापुरुष
मेरी ही रचना हो तुम
शर्मिंदा , मैं एक स्त्री
मां हूँ तुम्हारी , पर कब तक !
सह रही हूँ सब कुछ
जाओगे भी कहाँ तुम !
मैं ही हूँ तुम्हारी सीमा ,
पर कब तक !
शानदार पोस्ट
जवाब देंहटाएंएक व्यक्ति हूँ मैं ,मानवी
जवाब देंहटाएंअभिव्यक्ति की प्यासी
ताले न लगाओ
व्यक्त होने दो मुझे...
बहुत सुन्दर रचना। एक पुरुष इतनी खूबसूरती से एक स्त्री के भावों को व्यक करेगा , कभी सोचा न था।
आपको बधाई ।
zealzen.blogspot.com
Divya [zeal]
This is really a very beautiful and touchy post.
जवाब देंहटाएं