शुक्रवार, जुलाई 09, 2010

स्त्री

हाँ , मैं 
एक स्त्री 
सहनशीलता की जीवंत मूर्ति
अचला , धरा की तरह .


जब चाहा खोदा 
जहाँ चाहा छील दिया 
दोहन करते रहे हो 
सतत , पर कब तक !


रक्त संबंधों का हवाला 
रिश्तों की सीमा 
तन की रचना का वास्ता 
क्यों , कब तक !

एक व्यक्ति हूँ मैं ,मानवी 
अभिव्यक्ति की प्यासी 
ताले न लगाओ 
व्यक्त होने दो मुझे 

सूखने न दो ,पछताओगे
बरसते इस सावन में 
होने दो मुझे तर बतर 
तुम्हीं पाओगे मुझ में ,कुछ सरस 

तुमने कहा मुझे , अबला
फिर क्यों हो भयातुर 
उड़ने दो मुझे , मुक्त 
आकाश मेरा भी है 

तुम पुरुष , कापुरुष 
मेरी ही रचना हो तुम 
शर्मिंदा , मैं एक स्त्री 
मां हूँ तुम्हारी , पर कब तक !

सह रही हूँ सब कुछ 
जाओगे भी कहाँ तुम !
मैं ही हूँ तुम्हारी सीमा ,
पर कब तक ! 

3 टिप्‍पणियां:

  1. एक व्यक्ति हूँ मैं ,मानवी
    अभिव्यक्ति की प्यासी
    ताले न लगाओ
    व्यक्त होने दो मुझे...

    बहुत सुन्दर रचना। एक पुरुष इतनी खूबसूरती से एक स्त्री के भावों को व्यक करेगा , कभी सोचा न था।

    आपको बधाई ।

    zealzen.blogspot.com

    Divya [zeal]

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