शुक्रवार, सितंबर 11, 2009

बोध के सोपान

लगता ही है तुम्हें कि चुप हूँ 
भीतर है तुमुल कोलाहल 
कारों की पों पों 
दोपाये की भों भों, सुन नहीं पाता
तुम समझते हो ,बहरा हूँ 
युक्लिप्टस, यह शैतान गाछ 
सर पर खड़े बालों वाला छोकरा /
वो सफ़ेद टोपी वाला 
मेरी बेबसी पर हंसते हैं , हंसें 
रात की काली चादर पर अचानक बिजली की कौंध सा 
दूर कहीं एक कुतिया का रुदन 
सन्नाटे को पारता
असह्य बोझ बन 
मेरी छाती पर आ बैठता है 
डॉक्टर, हुंह:
आले लगाता और नब्ज़ टटोलता है 
तुम ही कहो 
कैसे , क्या बोलूँ ......

4 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी चुपी मे छिपे कोलाहल को जाना। आपके लिखने का अंदाज अलग है। आपकी रचना बलोग जगत के लिए अनुठी साबित होगी, यही हमारी शुभकामनाए है।

    जवाब देंहटाएं
  2. आपकी चुपी मै छिपे कोलाहल को जाना। आपका
    लिखने का अंदाज अनुठा है। आपकी रचना बलोग
    जगत कै लिए अनुठी साबित होगी। यही हमारी शुभकामनाए है।

    जवाब देंहटाएं
  3. आप उसी श्रेणी के ख़ूबसूरत इंसान हैं, जिसे केवल महसूस किया जा सकता है...! आपको मेरा नमन!

    जवाब देंहटाएं
  4. sir your think is verry deep..... app us kahawat ko sarthak karte hai,,jaha na pahunche ravi waha pahunche kavi... agen

    जवाब देंहटाएं